यादें गोहाना की
यादें हमारी अपनी जिन्दगी का इतिहास होती हैं। कभी साधारण सी बात भी हमारी जिन्दगी के लिए आनंददायी बन कर हमेशा हमारे साथ रहती है। हुआ यह कि जिला रोहतक की तहसील गोहाना के दो बड़े और ऐतिहासिक गाँवों -बडौदा और बुटाना, का कल्चरल सर्वे करके गोहाना में प्रवेश कर चुका था। शाम के 5 बज गए थे और आगे तीस किलोमीटर दूर रोहतक में अपने घर पहुंचना था।
लाला मातुराम के जलेब
मेरा एक सहयोगी भी साथ था। पूरा दिन काम करके थक चुके थे। तभी मेरे मन में ख्याल आया कि आज क्यों न मातू राम हलवाई की जलेबियों का स्वाद लिया जाये। जून महीने की ६ तारीख थी। गर्मी भी खूब थी। मैंने अपने चेतक स्कूटर अनाज मंडी की तरफ घुमा लिया और दूकान को ढूंढ लिया। जलेबियों की सुगंध 200 गज दूर तक आ रही थी। हाथ धोकर सेठ जी से दो जलेबियाँ देने को कहा। आधा किलो की होंगीं।
जी हाँ, इस दूकान पर जलेबी नहीं बल्कि ‘जलेब’ बनते हैं। फिर बातचीत के लिए दूकान के मालिक को बुलाकर पास बैठाया.।उनका नाम राजेंद्र था। 1999 में वे मुझे 45 साल के आसपास की आयु के लगे थे। इनका 16-17 साल का पुत्र भी दूकान के काम में हाथ बटा रहा था। लड़के ने दूकान संभाली और राजेन्द्र हमारे पास आकर बैठ गए।
काम कैसे शुरू हुआ
मालूम हुआ कि गोहाना के पास ज्यौली गाँव के रहने वाले मातू राम जी के लिए कोई काम धाम न रहा तो वे सन 1955 के आसपास अपने छोटे बच्चों और पत्नी को लेकर रोहतक अनाजमंडी में आकर एक रेहड़ी पर जलेबियाँ बना कर लोगों को खिलाने लगे। किराए पर मकान लिया। वे गाँव से लाया देसी घी इस्तेमाल करते थे।
इनकी जलेबियों के लोग शीघ्र ही दीवाने हो गए। मंडी में आसपास के गाँवों के लोग बैलगाड़ियों में अनाज लेकर बेचने आते और छक कर जलेब खा कर गाँव लौटते। शहर के लोग भी और सेठ लोग भी जलेब खाते। धंधा चल निकला लेकिन मंडी के आसपास के हलवाइयों के मन में ईर्ष्या के बादल उठने लगे और मातू राम जी को धीरे-धीरे तंग किया जाने लगा। अंत में दुखी होकर उन्होंनें काम समेटा और गोहाना की मंडी में डेरा जमाया। यहाँ आये तो जम कर काम क्या। फिर उन्हें यहाँ से डिगाने का साहस किसी में न हुआ क्योंकि सब को मालूम था कि वे पास ही ज्यौली गाँव के हैं और अपने गाँव के लोगों की ठाढ़ उनकी पीठ पर थी।
चमका काम और नाम
सन 1970 के बाद उनकी ख्याति दूर तक फ़ैल गयी और जलेबिया पैक करवाकर लोग ले जाने लगे। उनकी दुकान की जलेबियों की ख्याति से प्रभावित होकर अनेक बार हरयाणा राज्य के मुख्यमंत्री रहे चौधरी बंसी लाल, भजन लाल और देवीलाल तक ने यहाँ खड़े होकर ही जलेब खाए और मना करने के बावजूद पैसे चुकता करके मातूराम की प्रशंसा की। वे बहुत से जलेबियाँ पैक करवाकर भी ले जाते थे।सन 1980 की आसपास मेहनत करके थके हुए मातूराम जी को भगवान ने अपने पास बुला लिया ताकि वे स्वर्ग में जलेब बनाकर देवों को खिला सकें। नीचे धरती पर काम संभाला उनके पुत्र राजेंद्र गुप्ता ने।
तकनीक
जलेबी मैदे से बनती है। शाम को मैदे को पानी में भिगोकर थोड़ा सा मीठा सोडा मिला दिया जाता है। सुबह 8 बजे तक इसमें खमीर उठ जाता है। अर्थात पूरा घोल fermented हो जाता है जिसकी वजह से इसमें थोड़ा सा खटास पैदा होता है और इसी कारण इसमें प्रोटीन की कुछ मात्रा भी उत्पन्न हो जाती है।
राजेंद्र जी की जलेबियाँ खाकर आनंद आया। हमने पैसे चुकता किया सिर्फ रु.20 क्योंकि उन दिनों वे चालीस रुपया प्रतिकिलो के हिसाब से दे रहे थे। अब भाव है 250-300 रु. प्रति किलोग्राम। इनका हाथ इतना सधा हुया है कि एक जलेब 250 ग्राम के आसपास का बनता है क्योंकि कढाई के घी में पकने के बाद जलेब को खांड की ‘पात’ या गाढे घोल में पांच मिनट के लिए डुबाया जाता है और फिर एक स्टेंड पर इसे रख दिया जाता है ताकि फालतू का मीठा या चाशनी टपक कर नीचे कढाई में गिर जाए।
अपनापन और ताल्लुकात
फिर कुछ सोच कर जलेबियों और कारीगरी के कुछ चित्र खींचें जिन्हें मैंने कुछ दिन बाद अखबार में एक लेख के साथ प्रकाशित करने के लिए भेज दिया। घुमक्कड़ी करते हुए दो महीना बाद फिर जलेब खाने राजेंद्र जी की दूकान पर पहुँच गए। राजेन्द्र जी ने पहचान कर तुरत दो जलेब निकाल कर पत्तल में हमारे सामने रख दिया। राम-राम करके हमने जलेबियाँ खानी शुरू की तो राजेन्द्र ने हमारे सामने एक चित्र उठाकर लाते दिखे। ‘अरे…यह तो शीशे में फ्रेम किया हुआ मेरा लेख ही है’।
मैंने राजेन्द्र की तरफ देखा तो वह मुस्करा भर दिया। जलेब खा कर दो किलोग्राम जलेबियाँ पैक करने के लिए निवेदन किया। उसने तुरत दो डब्बे हमें थमा दिया। पैसे पूछने पर राजेन्द्र ने सहज भाव से मना कर दिया। तब मैंने कहा: ‘राजेन्द्र जी, जो खा लिया वह भाईचारे का और जो पैक करवा लिया वह घर वालों का। इसलिए आप 80 रु. ले लेवें’। उसने बड़ी आनाकानी से स्वीकार किये। मैंने कहा कि आज के बाद जो यहाँ बैठकर खायेंगे वह भाईचारे का उपहार और जो पैक करवाया तो उसके पैसे लेने होंगें।
राजेन्द्र मान गए। उसके बात दो बार और जाना हुआ। लेकिन तीसरी बार गए तो दूकान बंद मिली। पूछने पर यही जवाब मिला कि आप घर चले जाएँ। हमें पूछताछ करके घर ढूंढा और दरवाज़ा खटखटाने पर उसका छोटा भाई निकला। मैंने कहा राजेंद्र जी से मिलना है। वह अजीब नजरों से घूर कर देखने लगा और फिर कहा कि भाईसाहब तो ऊपर चले गए। मैं समझ गया। उनके देहांत के कई महीने बाद हम गोहाना पहुंचे थे। इसके बाद बच्चों के पास उस भाव से जाने की हिम्मत न हुयी। सुना है दूकान बादस्तूर चालू है।
मातुराम परिवार की बिजनेस फिलोसोफी
लाला जी ने अपनी जलेबियों का कोई कॉपीराइट नहीं लिया क्योंकि बड़े आकार की जलेबियों का निर्माण इन्होनें ही पहली बार इस क्षेत्र में किया था। आज तो आसपास के शहरों में और, खासतौर से, गोहाना शहर में ही 50 दूकानों पर लाला मातू राम की असली दूकान के बोर्ड लगे दीखेंगे। यह एक तरह की बौद्धिक चोरी है। लेकिन लालाजी के पुत्रों ने कभी किसी पर कोई केस नहीं किया और इन्हें कभी इससे कोई घाटा भी नहीं हुआ। वे कहते हैं किस्मत से आगे कोई किसी का कुछ न ले सकता है, न दे सकता है. लेकिन अपने जलेब के कारण आज लाला मातू राम अमर हो गए हैं। यह है हरयाणा का फ़ूड कल्चर.
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