किसान की जिन्दगी का क्लेश-कुछ अनुभव

ranbir singh phogat

किसान परिवार और हालात

अभी किसान को बहुत पैसा की दरकार रहती है। उसे बहुत सी नयी वस्तुओं की चाहना हो गयी है। सन 1960 में अगर उसका काम 50 वस्तुओं से चलता था तो आज 500 भी कम पड़ती हैं।अभावग्रस्त आखिर क्यूं कोई रहे? जरूरत है या नहीं है, सवाल यह नहीं. बल्कि यह कि, किस वस्तु को जरूरत बनाया जा सकता है और बना ली गयी है। फिर उसके लिए पैसे का जुगाड़ अपरिहार्य बनता है।

किसान परवारों में एम्प्लॉयमेंट या नौकरी का आंकड़ा तो हमें सेन्सस रिपोर्ट्स से मिल जाता है। वैसे भी देखते हैं कि 50 प्रतिशत परवारों में से एक आदमी तो नौकरी पर है ही। बस, गाँव में रहने वाले ‘मार्जिनल’ किसान के परिवार का गुजारा इसी से होता है। बिजली, सड़क, मोबाइल फोन और पर्सनल वाहनों ने इन जरूरतों को पैदा करके हमारे लिए गुज़र-बसर के पैसों में सेंध लगाई है।

पुराने दौर की बातें

सन 1965 तक हम लोग गाँव में रहते थे। तब बहुत चीजें हमारे परिवेश में नहीं होती थीं। एक इंक पेन लेने तक के लिए बहुत सोचना होता था। सारा काम सरकंडे की बनी कलम और रुलिया बानिया की दूकान से लायी गयी एक पैसे की काली रोशनाई की पुड़िया से कुल्हियाँ में बनायी गयी दवात से होता था। अर्थात यही लेखन सामग्री मेरे पास आठवीं जमात तक रही। आठवीं के बोर्ड के इम्तिहान के कुछ पहले ही पिताजी ने दया करके एक इंक पेन लाकर दिया जिसकी नाल में 10-15 एम.एल. स्याही आती थी। लेकिन इम्तिहान होते ही एक दिन यह पेन खो गया। फिर अगला पेन माँ से डेढ़ रुपया लेकर लाया जो दसवीं पास होने तक मेरे पास रहा। अब 1967 का यह अप्रैल महीना था। अब मेरे पास पारकर के चार बेहतरीन पेन हैं।

संयुक्त परिवार में जितना खाना मिलता वह पर्याप्त था लेकिन आजकल की तरह शहर तो क्या अब गाँव के बस अड्डे पर भी तुरत आहार और फल जितनी तत्परता से मिलते हैं तब कुछ न हुआ करता। अधिक हुआ तो और बनियों की बनिस्पत ‘दरिद्र’ से हालात में जीने वाले रामू बानिया की दूकान से खील-बताशे ले आते थे। या फिर घर में भीतर ओबरे में जाकर गुड़ निकाल कर खा लेते। तब यही मिठाई होती थी।

मुझे याद नहीं कभी साझा कुनबे में मेरे या मेरे भाई बहनों या माँ के लिए वस्त्र बनवाये गए थे। हमारा परिवार मौजिज और समृद्ध माना जाता था। लेकिन कैश नहीं होता था. तब 100-200 रु. भी बहुत होते थे और वे दादाजी अपने बनियान की भीतरी जेब में रखते थे। और अधिक रुपये होते तो वे हवेली में रखी तिजोरी में रखे जाते। ऐसा तब होता जब रबी की फसल से पहले गुड़ बेचा जाता, नवम्बर में कपास बेची जाती और बैसाख महीना में नहीं बल्कि मार्गशीर्ष या फागण में पुराने गेहूं निकाल कर अर्थात ठेका रीता करके बेच दिया जाता क्योंकि महीना भर बाद ही नयी फसल से अनाज घर में आने वाला होता था।

हमें जो कपड़ा और वस्त्र मिलते वे नानी भेजती थी या पिताजी सिल्वा देते और वह भी तब जब है हमें मिलिट्री में फॅमिली स्टेशन पर अपने साथ रखते। कुनबे में अभाव तो नहीं था। लेकिन तब 450 बीघा खेती की जमीन में से करीब 300 बीघा ही बोई जाती थी। बाकी की परती रख ली जाती या ‘साढू’ की जिसमें आसौज में चना, मेथी बोई जाती और गेहूं। चार हल थे और बीसियों पशु जिनमें से चार भैंस और एक गाय हमेशा दूध देती थीं। दो रेहडू, ढ़ांच वाली दो बैलगाड़ी और 12 बैल थे। यह सब दो बीघा के घेर में खड़ा रहता जिसमें एक बड़ा दरवाज़ा और दो दुकड़िया बैठक थीं। इनमें से प्रत्येक के साथ दो-दो ओबरे भी थे।

भीतरले में दो हवेलियाँ थीं -एक पुरानी जिसे सन 1923 में मेरे पड़दादा ने बनवाया था और एक नयी जिसे दादा ने बनवाया। उनकी विशाल बैठक अलग से थी जो 400 गज में थी। वे जैलदार थे और अफसरों (पुलिस, नहर और रिवेन्यु विभाग के) यहीं आते थे। इसमें बीस आदमियों के खाने-पीने और आराम करने लायक जगह थी। तब बढ़िया गुज़र-बसर होती थी क्योंकि जरूरतें बड़ी या अधिक नहीं थीं।

अनाज फल दूध घी सब्जी

अनाज, फल, दूध-घी, सब्जी सब अपने खेत का था। सब्जियां सब वे जो देसी थीं। घीया, तोरी, भिन्डी, बैंगन, मिर्च, टिंडा, खरबूजा, जामुन, अमरुद और आम सब मिलते थे। भिन्डी इसलिए बोई जाती थी कि इसके ताने को सुखाकर रख लिया जाता था। जब कोल्हू चलाये जाते और गन्ना पैर कर रस निकाला जाता तब इसे उबाल कर गुड़-शक्कर और खांड तैयार की जाती थी।

हम पूरी सर्दियां कोल्हू में काम करते। भिन्डी के पतले तनों को कूट कर एक बरोली में इन्हें डूबा दिया जाता जिनसे लेसदार रस तैयार हो जाता। तब कड़ाह में उबलते रस में इसका छीनता लगाया जाता। इसमें मौजूद एन्जाईम एक कैटालिस्ट का कम करके गन्ने के रस में से मेल को अलग करता था। इसे छलनी से पकड़ कर एक मटके में इकट्ठा करते रहते। इस मैली को कुत्ते चाव से खाकर मोटे हो जाते थे।

फलों का डिस्ट्रीब्यूशन दादी के हाथ में था। लेकिन मैं छः महीने का भी नहीं था वे नहीं रही। अर्थात कभी, जून 1953 में, वे सिधार गयी। फिर कमान आई इनके बाद वाली दादी के हाथ में। सन 1960 तक सब ठीक चला लेकिन उसी साल कुनबा चार जगह हो गया। चारों दादा अलग जरूर हुए लेकिन भला इन चार भाईयों को कौन अलग कर सकता था? उसी साल इस सदमें को न सह पाने के का-30रण मेरे वाले दादा भी डाईसेंट्री (रोटा -वायरस इन्फेक्शन) होकर सिधार गए। उन्हें सिविल अस्पताल तक भी नहीं पहुंचा पाए थे। गाँव में ही सीसू बनिया आयुर्वेदिक दवा देता था। उसने मामला बिगाड़ दिया। शरीर का इलेक्ट्रोलाईट बैलेंस एक बार बिगड़ा तो फिर जीवन ही ख़त्म कर गया।

तब धान सिर्फ डहर वाले खेत में अधिक से अधिक चार कनाल भूमि में लगाया जाता था ताकि परिवार की जरूरत पूरी हो सके। इससे सिर्फ पूर्ण मासी और अमावस्या को खीर बनती थी। कभी गुड़भत्ता भी बनाया जाता थी जिसे दूध डालकर शाम को पीया जाता. बैसाख-ज्येष्ठ में राबडी बनायी जाती थी और सर्दियों में बाजरे की खिचडी। यह सब 25-30 सेर से कम तो बनता नहीं था। खाट-पलंग और पीढ़े भरने के लिए ‘सणि’ खेत में बोई जाती और ईख के साथ ‘आड़’ में पटसन. बाज़ार से सिर्फ दाल आती थी।

तब बहुत पैसा नहीं चाहिए था। चाय की पत्ती, चीनी कोई नहीं जानता था। टेलीफोन नहीं था, मोटर साइकिल नहीं थी। तांगा था, घोड़ा था और रेहडू और बैलगाड़ी थी। यह सब सन 1970 तक चला।

धान का स्यापा

लेकिन आजकल किसान को बहुत पैसा चाहिए क्यों चाहिए। मुझे समझाने की जरूरत नहीं। इसलिए अधिक पैसा या कैश लाने के लिए किसान अपने खेत के 90 प्रतिशत हिस्से में आजकल खरीफ की फसल के समय धान लगाता है। मैंने इसकी कॉस्टिंग अपने खेत से की है। प्रति एकड़ की उपज को बेचने के बाद लागर निकाल कर 500-1000 रु. ही बचते हैं। लेबर चार्जेज भी पूरे नहीं होता जबकि ज्वार बाजरा उगाने की धान से सिर्फ एक चौथाई ही है और बाज़ार में इसे बेचने पर प्रति क्विंटल 1500 से 2500 रु. मिलता है। इस धान की फसल ने पिछले 30-40 साल में हरियाणा का जो सत्यानाश किया है उसका असर हमारी जीवनशैली, स्वास्थ्य और घरों के डिजाईन पर भी पड़ा है। घरों का डिजाईन बदलने से अब पशुओं को रखने में भारी समस्या पेश आ रही है, क्योंकि या तो पशु बाँध लें या गाडी या बाईक रख/पार्क कर लें।

सन 1890 से 1935 तक हमारे खेतों में फसलों की सिंचाई छोटी नहर से होती थी। फिर सन 1935-37 में इसे चौड़ा किया गया। और पानी मिला और शानदार फसलें होती रही। सूखा क्या होता है हमें नहीं मालूम हुआ। गाँव के कुएं सदानीरा थे। अब सब कबाड़। चार बड़े जोहड़ लेकिन अब सिर्फ गंदे पानी के गढ़े।

हवेलियाँ सब धाराशयी। लोगों के पास पैसा भी आया लेकिन खर्च कहाँ और किस आइटम पर होता है, यह देखना जरूरी है। वह बच्चों की स्कूल से लेकर यूनिवर्सिटी तक की फीस भरने के काम नहीं आता, बल्कि मोबाइल खरीदने और अनाप-शनाप खर्च करने में व्यय होता है। अर्थात, आधी आमदनी फ़िज़ूल की आइटम्स पर खर्च हो जाती है।

नित नये क्लेश

धान से मिलने वाला पैसा हाथ के मैल की तरह उड़ जाता है। लेकिन इसने लोगों की आदतें, खेत की मिटटी का मिजाज़ और पशुओं के जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। तब किसान किसी तरह का आन्दोलन नहीं करता था। फौज-पुलिस और सिविल में भी तत्काल नौकरी मिल जाती थी. सिफारिश का कोई मतलब नहीं था। नेतागिरी तब गाँव की गलियों तक नहीं पहुंची थी।

अब धान और पॉलिटिक्स ने सब जगह गंदगी फैला दी है। और किसान का जो हाल है वह किसी से छिपा नहीं। किसान कहता कि उसे वह सब चाहिए जो शहर में समृद्ध और धनाढ्य लोगों के पास है। तब के धनाढ्य लोग भी बचत को गाँव में सार्वजनिक निर्माणों पर खर्च करते थे।

फिलान्थ्रोपिक बनिया गाँव से शहर भाग गए। देखा कि अब गाँव समाज की प्रकृति बदल चुकी है और पॉलिटिक्स ने लोगों को परनिर्भर कर दिया है। अब सब कुछ समाज और चौधरी लोग नहीं बल्कि नेता लोग निश्चित करते हैं। बर्बादी है तो नेता करेंगे और काम है तो भी नेता ही करेंगे। बस, रोटी तोड़ कर वे मुंह में नहीं दे रहे हैं। बाकी सब जिम्मेवारी उनकी या फिर धान के पैसे की हो गयी है।

ख़ुशी के राज

मैंने देखा है जब तक हमें अपने फसलों से चना, गुड़, कपास, ज्वार, बाजरा, गेहूं और ‘सणि’ मिलती रही और किसान हल की मूठ थामकर बैलों की जोड़ी हांकता रहा हम खुश रहे। मैं अपने चार बैलों के शरीर की सफाई हर शाम को खुद करता था। उसकी कमर पर खुरहरा फेरने के बाद कपडे से साफ़ करते समय जो सुख था वह ऐसा ही है जैसा एक बेटा अपने बाप के पैर दबा रहा हो।

मेरे बैल मेरे निकट आते ही गर्दन हिलाते और उनके गले में लटकती घंटियाँ किसी मंदिर की घंटियों सरीखी ही आवाज़ करती थी। एक नीला बैल था व पैर उठाया करता और कहता कि मेरे खुर पर लगी मिट्टी साफ़ करो। मैं करता तो वह अपनी जीभ से मेरे सर को चाटता था। फिर मैं उसके गले से लिपट जाता। जाऊ कहता सींग मार देगा,लेकिन लीले बुलद ने ऐसा कभी न किया। तब मैं बामुश्किल 12 साल का था।

अब हम अभाव महसूस करते हैं; पैसे का कम और जिन्दगी के उस परिवेश का अधिक जिसे जीया था. और….अब तो जिन्दगी एक क्लेश से कम नहीं लगती।

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