Yusuf Wala Pipal
गांव कसौर , गुहला चीका क्षेत्र, कैथल हरियाणा की ग़ली मे एक पुराना पीपल का पेड़ है जिसे सब “यूसुफ वाला पीपल” का पेड़ कहते हैं। क्यों कहते हैं यह कोई नहीं जानता है।
यह अगस्त महीना 1947 का था
जैसे ही देश आजाद हुआ तो कसौर गांव में रहने वाले युसुफ को भी पता चला तो उसने कुछ इधर उधर से हरा, सफेद व संतरी तीन अलग अलग रंगों के कपड़ों का जुगाड़ किया। हाथ की सुई से सिलकर तिरंगा झंडा बनाया और गांव की फिरनी से कुछ इधर खड़े पीपल के पेड़ की एक लंबी टहनी पर लहरा दिया।
गांव के काफ़ी लोग वहां इक्कठे हो गए और पूरे गांव में पतासे बांटे गए और साथ यह खबर भी फैल गयी कि देश आजाद हो गया है चारों और मुबारकबाद दी गयी।
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इस घटना के चार दिन बाद यूसुफ को अपने पांच बड़े भाइयों व उनके परिवारों के साथ गांव छोड़कर नए देश के लिए कूच करना पड़ा क्योंकि ‘आजादी’ की खबर के पीछे पीछे मुसलमानों का एक अलग देश बनने की खबर भी आ गई थी।
यूसुफ और उसके परिवार के चले जाने के बाद गांव वालों ने इस पीपल के पेड़ को यूसुफ वाला पीपल कहना शुरू कर दिया।
कसौर गांव में शतायु होने जा रहे गांव के मान सिंह कुम्हार बताते हैं कि पास ही के अरनेटू गांव के कुतुबा रांगड़ और नूरां गुजरी के परिवारों के साथ कसौर वालों की पशु चोरी को लेकर पुरानी दुश्मनी थी।
कसौर अकेला हिंदुओं का गांव था और आसपास के सभी गांव मुस्लिम बहुल थे। नज़दीक के गांव बादशाहपुर व समाना से आ रहे मुसलमानों के काफिलों का यहां से गुजरना भी कसौर गांव वालों में डर पैदा कर रहा था।
मान सिंह जी बताते हैं कि अरनेटू वालों ने कई दिनों तक कसौर गांव के चारों तरफ दिन रात पहरा दिया और जब आसपास के सारे गांव उठकर चल गए तो सबसे बाद में पाकिस्तान के लिए रवाना हुए।
चीका में रहने वाले 90 की उम्र देख चुके बुजुर्ग पूर्ण राम जी भी हैं जो बड़ी शान से बताते हैं कि जब भागल गांव वाले चीका गांव के मुसलमानों पर हमला करने आए थे तो चीका गांव के जाटों ने मुसलमान परिवारों को अपने घरों में छिपा लिया था और यह कहकर वापिस लौटा दिया था कि ‘जे मारणे पडग़े तो हाम आपौ मार ल्यांगे”
ये मुस्लिम परिवार आज भी चीका गांव के निवासी हैं। पूर्ण राम को उन दिनों के अनेकों अच्छे और बुरे किस्से बाखूबी याद हैं।
कुछ युवकों द्वारा मस्जिद को नुक्सान पहुंचाने और उसके बाद गांवों वालों द्वारा पंचायत बुलाकर उन लड़कों को झाडऩे के किस्से को पूर्ण राम ऐसे सुनाते हैं जैसे कल ही की बात हो।
बुजुर्ग पूर्ण राम जी को यह भी याद है कि कल्लर माजरा की जमीन में बसे लीला खान को जंगीर सिंह ने पुरानी दुश्मनी के बावजूद अपने यहां कई हफ्तों तक पूरे सम्मान से रखा था। फिर खुद पिहोवा तक छोड़कर आया था ताकि वे जत्थे में मिलकर पाकिस्तान जा सकें।
सलेमपुर गांव जो अब नगरपालिका में आ गया है में रहने वाली बस्स कौर जी का अनुभव भी बड़ा मशहूर है जो अपने गांव के एक मुसलमान परिवार को अपने घर में छुपाकर बाहर चरखा कातने बैठ गई थी। बलवाई दंगाई मुस्लिम परिवार को ढूंढने आए लेकिन श्रीमती बस्स कौर अपने घर के बाहर सहज भाव से चरखा कातती रही, बस्स कौर चरखा कातते देखकर दंगाई वापिस लौट गए।
गुड़ चने का भंडारा
बुजुर्ग पूर्ण राम जी ने स्थानीय पत्रकार गुरविंदर मितवा जी को बताया कि थानेसर जाने वाले काफिले यहां पिहोवा रोड से गुजरते थे। चीका गांव के एक सेठ कन्हैया लाल ने पिहोवा वाले रास्ते पर हलवाई बिठाकर चने भूनने पर लगा दिए और पाकिस्तान जाते जत्थों को जरूरत अनुसार भुने चने और गुड़ दिया गया ताकि मुश्किल समय में उनका काम चल सके।